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भारतीय मीडिया आदिवासियों, दलितों और पिछड़ों को क्यों समझती है मेरिटलेस: मीना कोटवाल

मूकनायक की जरूरत और उसके बनने की पूरी कहानी, संपादक मीना कोतवाल की जुबानी

हाल ही में आपने कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की एक तस्वीर देखी होगी. जिसमें उनसे एक महिला पत्रकार सवाल कर रही है और राहुल गांधी एक बच्ची को पुचकार रहे हैं. यहां सवाल करनेवाली पत्रकार कोई और नहीं, मीना कोतवाल थीं. जो अपनी बेटी को गोद में लिए राहुल के साथ दौड़ती रहीं और सवाल करती रहीं. जब वह थोड़ी थक गईं तो राहुल ने उनकी बेटी को गोद लिया और साथ चलने लगे. मीना कोतवाल का देश के टॉप संस्थानों में पढ़ना, टॉप मीडिया हाउस में नौकरी करना. वहां से निकाला जाना और फिर द मूकनायक का बनना. सबकुछ मीना की जुबानी…

भारतीय मीडिया पर एक विशेष वर्ग का हमेशा से दबदबा बनाये रहने का आरोप है. यहां दलितों, आदिवासियों और हाशिये पर रहने वाले समुदाय अपनी जगह बनाने में मुश्किल का सामना कर रहे हैं. यहीं नहीं मीडिया का पक्षपात कई कारणों से नजर आता है. दलितों, वंचितों और आदिवासियों की स्थिति इस बात से भी सामने आती हैं कि उनपर होने वाले शोषण और अत्याचार की घटनाएं मुख्यधारा की मीडिया में बहुत अधिक जगह नहीं बना पाती. संजीदा अखबारों और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में छोटी सी खबर छप जाती है या प्रसारित कर दी जाती है और यहीं तक मामला खत्म हो जाता है.

भारत की मीडिया में जातिवाद और भेदभाव मौजूद है यह अब जगजाहिर हो रहा है. कई बार मीडिया संस्थान ऐसी घटनाओं को कवर नहीं करने के पीछे का कारण समय पर जानकारी नहीं मिलना, घटनाओं के दूरदराज क्षेत्रों में होना बताते हैं. लेकिन सच्चाई यह है कि हर प्रखंड और छोटी छोटी जगहों पर संवाददाताएं मौजूद होते हैं. यह कुछ और नहीं, मीडिया का दो चरित्र है और ऐसे मुद्दों के प्रति उनकी असंवेदनशीलता नजर आती है. मीडिया संस्थानों में काम करने वाले आदिवासी, दलित समुदाय के पत्रकारों के अनुभव यह बयां करते हैं.

बीते कुछ सालों में भारतीय पत्रकारिता में ऐसे मीडिया संस्थानों का उदय हुआ है जो प्रमुख तौर पर आदिवासी, दलित और हाशिये पर रहने वाले लोगों की आवाज बन रहे हैं. पत्रकारिता के क्षेत्र में उनकी आवाज को मुखर किया जा रहा है. इसमें मूकनायक अपनी भूमिका मुख्य रूप से निभा रहा है और व्हाइस आफ द व्हाइस लेस यानि आदिवासी और दलित समुदाय की आवाज बन रहा है.

इस संबंध में मेड इन मीडिया ने मूकनायक की स्थापना करने वाली पत्रकार मीना कोटवाल से जब बातचीत की तो उन्होंने ये बातें रखीं.

उन्होंने बताया मूकनायक की स्थापना 31 जनवरी 2021 को हुई. यह प्रेरणा डॉक्टर भीमराम आंबेडकर से ली गयी. मूकनायक की शुरूआत भीमराव आंबेडकर ने ही की थी. उस समय का मीडिया भी हाशिये पर रहने वाले लोगों की आवाज नहीं उठाता था. आज भी स्थिति बदली नहीं है. मुख्यधारा की मीडिया वंचितों के मुद्दों को नहीं उठाता. और ऐसे में उस प्लेटफॉर्म की जरूरत महसूस की जा रही थी ​जहां उनसे जुड़े मुद्दों को आवाज मिल सके. तमाम अधिकारों से महरूम वंचितों की आवाज बन उन्हें उनका अधिकार दिलाना, उनकी आवाज को मुखरता से सामने लाना मूकनायक का उद्देश्य है.

अपने अनुभव साझा कर वह बताती हैं कि कई प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों और अल्टरनेटिव मीडिया में काम करने के बावजूद यह पाया कि दलित और आदिवासी समुदाय के लोगों को कई कारण गिना पीछे रखा जाता है. आजादी को 75 साल हो गये और मीडिया में आज भी जातिवाद मौजूद है. मीडिया संस्थानों में उच्च पदों के योग्य नहीं माना जाना और नीतिगत निर्णय लेने में हिस्सेदारी नहीं मिलना यह बिल्कूल साफ दिखता है.

वह कहती हैं कि मीडिया संस्थान में अमूमन सुनने को यह मिलता है कि पत्रकारों का चयन उनके मेरिट के आधार पर होता है. लेकिन यदि सवाल किया जाये तो क्या मेरिट सिर्फ किसी वर्गविशेष में होता है. ऐसा अब देखा जा रहा है. उन्हीं का मेरिट सामने आता है. सभी जगह जाति है. जाति ने पीछा नहीं छोड़ा. सरकारी नौकरियों में आरक्षण होता है इसलिए थोड़ी संख्या नजर आती है. लेकिन अन्य जगहों पर ऐसा नहीं है. जहां पर आरक्षण है वहीं पर ऐसा होता है कि आदिवासी या दलित को रखना है. संभवत: किसी प्रकार का फिल्टर लगा है जिससे यह निर्णय लिया जाता है.

अल्टरनेटिव मीडिया में भी नीतिगत निर्णय लेने में भी समुदाय को हिस्सेदारी नहीं मिल पाती. हाशिये पर रहने वाले समाज की बातें तो होती हैं लेकिन ठोस निर्णय लेकर उन्हें आगे बढ़ाने के मामले में पक्षपातपूर्ण रवैया दिखने लगता है. कई मीडिया संस्थानों में देखा जाये तो पुरुष का दबदबा है. महिलाएं एडिटर या उच्च प्रबंधकीय पदों पर नहीं होती हैं. यह सब चीजें देखते हुए मूकनायक की शुरूआत की गयी. और मूकनायक का उद्देश्य इस गैप को भरना है.

वह बताती हैं कि ऑक्सफैम की रिपोर्ट की मानें तो आजतक दलित या आदिवासी एडिटर के पोस्ट पर नहीं पहुंचा है. चाहे वह प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रॉनिक, रेडिया या डिजिटल स्थिति जस की तस है. इस साल ऑक्सफैम की रिपोर्ट के मुताबिक यह डायवर्सिटी मूकनायक में मिली है.

मीडिया संस्थानों में कहा जाता है कि पत्रकार की कोई जाति नहीं होती है ले​किन न्यूजरूम पहुंचने के साथ वह जाति दिखने लगती है. उनका मानना है कि अल्टरनेटिव मीडिया स्वयं को लिबरल प्रोग्रेसिव समूह में शामिल तो करता है लेकिन कई जगहों पर वह बंटता दिख रहा है. दलित व आदिवासी को मौका नहीं देना चाहता. आखिर ऐसा क्यों है.

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